मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥4॥
मया मेरे द्वारा; ततम्-व्याप्त है; इदम् यह; सर्वम् समस्त; जगत्-ब्रह्माण्डीय अभिव्यक्तियाँ; अव्यक्त-मूर्तिना-अव्यक्त रूप द्वारा; मत्-स्थानि–मुझमें; सर्व-भूतानि-समस्त जीवों में ; न-नहीं; च-भी; अहम्-मैं; तेषु-उनमें; अवस्थितः-निवास।
BG 9.4: राज विद्या योग इस समूचे ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति मेरे अव्यक्त रूप में मेरे द्वारा व्याप्त है। सभी जीवित प्राणी मुझमें निवास करते हैं लेकिन मैं उनमें निवास नहीं करता।
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वैदिक दर्शन इस अवधारणा को स्वीकार नहीं करता कि भगवान सृष्टि का सृजन करने के पश्चात सातवें आसमान से झाँक कर यह जाँच करें कि उसके संसार का संचालन भली भाँति हो रहा है। वे इस मूल तत्त्व को बार-बार प्रतिपादित करते हैं कि भगवान इस संसार में सर्वत्र व्यापक रहते हैं
एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी
(श्वेताश्वरोपनिषद्-6.11)
"एक ही परमेश्वर है। वह प्रत्येक के हृदय में निवास करता है और वह संसार में सर्वत्र व्यापक है।"
ईशावास्यमिदंसर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
(ईशोपनिषद्-1)
"भगवान संसार में सर्वत्र व्यापक है।"
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्।
(पुरुष सूक्तम)
"भगवान उन सब में व्याप्त है जिनका अस्तित्व है और जिनका आगे अस्तित्व होगा।"
भगवान के सर्वव्यापक होने की अवधारणा को व्यक्तिपरक समझा जाता है। दार्शनिक दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि संसार परिणाम अर्थात भगवान का रूपांतरण है। उदाहरणार्थ दूध मिलावट रहित पदार्थ है। जब यह अम्ल के संपर्क में आता है तब परिवर्तित होकर दही बन जाता है। इस प्रकार जब दूध परिवर्तित हो जाता है तब दही दूध का परिणाम, प्रभाव या उत्पाद बन जाता है। इसी प्रकार परिणामवाद के समर्थक कहते हैं कि भगवान संसार के रूप में परिवर्तित हो गया है।
अन्य दार्शनिक यह दावा करते हैं कि संसार 'विवृत' अर्थात एक पदार्थ में दूसरे का भ्रम है। उदहारणार्थ अँधेरे में भूल से साँप में रस्सी का भ्रम हो जाता है। इसी प्रकार से प्रकाश की चाँदनी में चमकते हुए मोती में भूल से चांदी का भ्रम हो जाता है। समान रूप से वे कहते हैं कि केवल एक भगवान ही है और कोई संसार नहीं है। हम जिसे संसार के रूप में देख रहे हैं वह वास्तव में ब्रह्म है। किन्तु श्लोक 7.4 और 7.5 के अनुसार संसार न तो परिणाम और न ही विवृत है। यह भगवान की भौतिक शक्ति जिसे माया शक्ति कहते है, से निर्मित हुआ है। जीवात्माएँ भी भगवान की शक्ति हैं लेकिन ये परा शक्ति हैं जिन्हें जीव शक्ति भी कहा गया है। इसलिए संसार और समस्त आत्माएँ दोनों भगवान की शक्तियाँ हैं और उनके परम व्यक्तित्व के भीतर हैं। किन्तु श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं कि वे सभी प्राणियों में निवास नहीं करते अर्थात असीम सीमित में समाविष्ट नहीं हो सकता क्योंकि वे इन दोनों शक्तियों के कुल योग से अति दूर हैं। जिस प्रकार समुद्र से कई लहरें निकलती हैं और ये लहरें समुद्र का अंश होती हैं लेकिन समुद्र इन सब लहरों के कुल योग से अधिक विशाल होता है। समान रूप से जीवात्माओं और माया का अस्तित्व भगवान के स्वरूप के भीतर समाविष्ट है किन्तु भगवान फिर भी उनसे परे है।